||मजबूर कलम की क्रूरता||
बड़ी बड़ी वो बातें करते क्रूरता में छुप जाते थे
निष्ठुर मन से देखकर हमको कलमों से हृदय जलाते थे
निर्मोही निर्मम होकर पाकर भी खो देते थे
हंस हंसा कर बात बनाते अखियों को भर देते थे
कोई ना देखता है रुखको मन में जलती नफरत की बु को
लुट लुटाकर कलम चलाते सब कुछ ध्वस्त कर देते थे
मर जाती जब सहानभूति करुणा भी मर जाता है
मानवता का गुण मरता है भावना को डर देता है
ऊंच ऊंचाई उड़ने को मानव जब मजबूर हुआ
पंख सुनहरे छोड़कर साहब अधिकारों में धुर हुआ
मशहूर हुए है मजबूर हुए क्या जन्नत का वो धुर हुए
जनजीवन के मन से वो तो कर्म से अपना दूर हुए
घुस ना पाया मन में नीति ना करुणा परिवेश हुआ
दोष किसका है इन बातों का जिनके हाथों शेष हुआ
समझ बुझ जो रखते है कितने पीड़ा को भरते है
अभिरोष में आकर कलम चलाते अमर नाम जो करते है
कर्मों के तट पे वो आके एक नई राह बताते है
भूल जाते स्वाभिमान को जैसे तामस वाण च
लाते है
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