अन्याय की आँच में चुपकियों की चीख कविता
अन्याय की आँच में चुपकियों की चीख
अभागीन है अन्यायी अत्याचार ना कर
कुकर्मों की विस्तार पर व्याख्यान ना कर
इच्छाओं की आलोक में कह जाती है दर्दे
ऐसे मानव के मुँह आगी भर !
मुँह का बोल कानों में गूंजता है
बुरा क्यों ना लगे जो दिल पे जूझता है
दुःख भी होता दर्द भी होता
आंखों की आग में सर्द भी होता
कुछ कह नहीं पाता कुछ सह नहीं पाता
मुंह के सामने मुंह बेखबर होता
मन की सोच मन को जगाती है
आंखों के आगे चश्मा लगाती है
आंखों से नहीं दिल से देखाकर
तंबाकू की आग से मुंह को संभेखा कर
कभी कल्पना कर तो कभी हभेखा कर
कौन क्या है उसको निरखा कर
कभी शोभा बढ़ा तो कभी दिल गुन गुनायाकर
चुप देखकर आंखों को शर्माया कर
कठोर दिल को दिल से मिलाया कर
उत्साहों की आवाज को दूना बढ़ाया कर
बोलता जा दिल की आवाज खोलता जा
पहाड़ों को छोड़कर वादियों को चुनता जा
कसूर कांच की तरह टूट जाता है
कंपन क्या करोगे सिकुड़ जाता है
कठोर भावों से कील चुभ जाती है
नजर में नजर घुल जाती है
कोमल हृदय को विचारों से सजाया कर
प्रेम का रस अपने प्रवासी पर लुटाया कर
दौड़ाकर निठल्ला को तौला कर
पलंग पे पतंग उड़ाया कर
सोने से पहले बिस्तर सजाया कर
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